Monday, September 10, 2018

सबको लगता है इस घर में मौतों का डेरा है

हरपाल को सरकार से किसी भी तरह का मुआवज़ा नहीं मिला है. पति की मौत के बाद अब हरपाल के लिए ज़िंदगी बहुत मुश्किल हो गई है. क़र्ज़, बेटे की पढ़ाई और बेटी की शादी– तीन पहाड़ जैसी मुश्किलें हर रोज़ उनका पीछा करती हैं.
वह कहती हैं, “पशुओं का दूध बेचकर किसी तरह रोटी का इंतज़ाम करती हूं पर बाक़ी सब ठप पड़ा है. पिता की मौत के बाद मेरा बेटा पहली बार परीक्षाओं में फ़ेल हुआ. बेटी की शादी के लिए रिश्ते नहीं मिल रहे हैं. कोई हमारे यहाँ शादी ही नहीं करना चाहता. सबको लगता है इस घर में मौतों का डेरा है. अब तो मुझे भी लगने लगा है कि हमारे घर में ही कुछ ग़लत होगा. अपने रिश्तेदार भी घर आने से कतराते हैं. उनके बिना कहीं आने जाने के लिए भी पड़ोसियों की मोहताज हो गई हूँ. आगे क्या होगा कुछ समझ नहीं आता”.
जिस पंजाब को ज़्यादातर उत्तर भारतीय जनमानस हरित क्रांति, समृद्धि, भांगड़ा और ख़ुशहाल किसानों से जोड़ता हैं, वहां की ज़मीनी सच्चाई आज मुख्तियार जैसे किसानों की कहानियों से भरी पड़ी है.
पंजाब सरकार की ओर से राज्य के तीन विश्वविद्यालयों की मदद से कराए गए पहले आधिकारी ‘डोर-टू-डोर’ सर्वे के मुताबिक़ पंजाब में वर्ष  और  के बीच  , किसानों ने आत्महत्या कर ली.
इन 16,606 किसानों में कुल 87 प्रतिशत मामलों में किसानों ने खेती से जुड़े ख़र्चों के लिए कर्ज़ लिया था और फिर उसे चुका न पाने की वजह से उन्होंने ख़ुदकुशी कर ली.
सरकारी आंकड़ो से बनी पंजाब की यह भयावय तस्वीर अभी पूरी नहीं होती. आगे यह भी जानिए कि अपनी जान ख़ुद लेने वाले इन किसानों में 76 प्रतिशत छोटे किसान हैं जिनके पास 5 एकड़ से भी कम ज़मीनें हैं.
मनसा ज़िले के भीमकालं गांव में हमारी मुलाक़ात एक ऐसे ही खेतिहर मज़दूर परिवार से होती है. इस परिवार की मुखिया हैं 50 वर्षीय बलदेव कौर.
बलदेव यूं तो पढ़ी लिखी नहीं हैं लेकिन पहले पति और फिर जवान बेटे की आत्महत्याओं ने उन्हें कवि बना दिया. उन्होंने अपना दुख पड़ोसियों को गाकर सुनाना शुरू किया और धीरे धीरे अपनों की मौत पर गीत बना लिए. आज उनके गीत ज़िले में किसानों के हक़ के लिए होने वाले विरोध प्रदर्शनों के ‘ऐन्थम सांग’ में बदल गए हैं.
अपनी भारी आवाज़ में सुर लगाकर ‘ख़ुदकुशियों दे राहें जित्ते प्यो दे पुत चले’ (ख़ुदकुशी की राह पर जिसके पति और बच्चे चले) गाती हुई बलदेव उदासी के साथ साथ संघर्ष की भी ज़िंदा तस्वीर लगती हैं.
हम खेतिहर मज़दूर हैं. हमारे पास अपनी कोई ज़मीन नहीं. इसलिए मेरे पति सिर्फ़ 8000 रुपए साल पर ज़मीनदारों के खेत में मज़दूरी किया करते थे. हम पर कर्ज़ा था और क़र्ज़ न उतार पाने की सूरत में मेरे पति ने घर बेच देने का भी क़रार किया हुआ था. हम कर्ज़ चुका नहीं पाए और मेरे पति ने स्प्रे पीकर आत्महत्या कर ली. मरने से पहले वो बहुत छटपटाए थे. फिर मैंने मज़दूरी करके अपने बच्चों को बड़ा किया. हमारे पास घर भी नहीं था. बारिश में मेरी झोपड़ी से पानी टपकने लगता और मैं बच्चों को एक कोने में लिए पड़ी रहती.
मैंने कर्ज़ा उतारने के लिए लोगों के खेतों और घरों में सब जगह काम किया. रोना आता पर गोबर तक साफ़ किया मैंने. लेकिन फिर भी कर्ज़ा न उतरा”.
कर्ज़ उतारने के लिए बलदेव का बेटा कुलविंदर 15 साल की उम्र से ही लेनदार ज़मीनदारों के यहां काम करने लगा.
मज़दूरी करते-करते ही 21 साल की उम्र में उनकी शादी करवा दी गई. उनका पहला बेटा सिर्फ़ 4 महीने का था जब कुलविंदर ने कीटनाशक पी कर ख़ुदकुशी कर ली. बलदेव के परिवार को दो आत्महत्याओं के बाद भी कोई मुआवज़ा नहीं मिला.
गाते गाते बलदेव का गला रुंध जाता है. दुपट्टे से आंसू पोछते हुए वो कहती हैं, “मुझे डर था इसलिए मैंने बेटे को नहीं बताया था कि हम पर कितना कर्ज़ है. पर वो बार-बार पूछता.
कहता माँ सच बता हम पर कितना कर्ज़ा है. फिर एक दिन उसे पता चल गया और उसने कहा कि हम कभी इतना कर्ज़ नहीं चुका पाएँगे. मैं चाहे कितनी भी हिम्मत बँधाती, पर वो अंदर से टूट चुका था.” में पंजाब सरकार ने किसान आत्महत्याओं के लिए एक नई ‘मुआवज़ा और राहत नीति’ को लागू किया. 2001 से पाँचवी बार बदली गयी इस नीति के तहत अब किसान आत्महत्याओं के सभी मामलों में पीड़ित परिवार को 3 लाख रुपए दिए जाने का प्रवधान है.
साथ ही किसानों की बढ़ती आत्महत्याओं के मद्देनज़र पंजाब सरकार ने दो कमेटियों का गठन किया है. सुखबिंदर सिंह सरकारिया की अध्यक्षता में ग्रामीण आत्महत्याओं के लिए बनी ‘विधान सभा कमेटी’ और टी हक़ की अध्यक्षता में बनी ‘ऋण छूट समिति’. इन कमेटियों ने ‘न्यूनतम समर्थन मूल्य’ बढ़ाने से लेकर ‘ऋण छूट’ तक पर किसानों के पक्ष में अपनी सिफ़ारिशें तो दे दीं हैं लेकिन उन पर ज़मीनी कार्रवाई अब तक शुरू नहीं हुई है.
पंजाब कृषि विश्वविद्यालय में पढ़ाने वाले प्रोफ़ेसर सुखपाल सिंह लंबे समय से पंजाब में बढ़ते कृषि संकट पर काम कर रहे हैं. वे राज्य सरकार की ओर से कराए गए ‘डोर टू डोर’ सर्वे के समन्वयक भी रहे हैं. बीबीसी से एक इंटरव्यू में उन्होंने कहा कि किसानी में चल रही ‘व्यापार की शर्तें’ किसानों के पक्ष में नहीं जा रहीं.
“बीजों से लेकर खाद, पानी और कीटनाशकों तक पर होने वाले ख़र्च बढ़ते जा रहे हैं और किसान की आमदनी उस हिसाब से बढ़ नहीं रही. यह बढ़ते क़र्ज़ और आत्महत्याओं के पीछे एक बड़ी वजह है. हालात ये है कि पहले जहां पंजाब की कुल कामगार जनसंख्या में से 63 प्रतिशत लोग किसानी थे, वहीं आज राज्य के सिर्फ़ 35 प्रतिशत लोग ही खेती कर रहे हैं.इस 35 प्रतिशत में भी सिर्फ़ 20 प्रतिशत किसान हैं, बाक़ी खेतिहर मज़दूर”.
आगे बरनाला ज़िले के ही बदरा गांव में हमारी मुलाक़ात गुरतेज दास से होती है. 45 वर्षीय गुरतेज के घर में कोई महिला नहीं हैं.
गांव की मुख्य सड़क पर बने एक बदरंग धूल भरे घर में रहने वाले इस हिंदू किसान परिवार के पास सिर्फ़ एक एकड़ ज़मीन है. एक दशक पहले यह परिवार ज़मीन किराए पर लेकर खेती करता था. लेकिन जिस दिन गुरतेज के बड़े भाई निर्मल दास ने क़र्ज़ के कारण आत्महत्या की, उसी दिन यह परिवार बिखर गया.
गुरतेज ने अपना जीवन बड़े भाई के बच्चों को पाल पोस कर बड़ा करने में लगा दिया. निर्मल के जाने के बाद गांव वालों ने बच्चों की माँ और बड़े भाई की पत्नी सरबजीत कौर से उनका विवाह भी करवा दिया था.
पर सरबजीत उनको और अपने बच्चों को छोड़ कर चली गईं. बिन माँ के बच्चों को बड़ा करना गुरतेज के लिए एक ऐसी चुनौती थी जिसका सामना करने के लिए न तो वह मानसिक तौर पर तैयार थे और न ही आर्थिक.
अपनी धूल भरी रसोई में चाय बानते हुए वह कहते हैं, “जब बच्चों की माँ गई तब छोटा वाला सिर्फ़ 6 साल का था. रातों को उठकर रोता था. अक्सर बीमार पड़ जाता. मुझसे जैसे बनता मैं वैसे खाना बनाकर बच्चों को खिलाता और उनकी देखभाल करता. उनको नहलाता, कपड़े पहनाता और सारे काम करता. फिर मज़दूरी करने जाता और वापस आकर उन्हें खाना बनाकर खिलाता.”

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