Friday, September 14, 2018

दिल छू लेगी नए जमाने के 'लैला-मजनू' की कहानी

जब वी मेट', 'लव आज कल', 'रॉकस्टार' और 'तमाशा' जैसी फिल्में बनाने वाले फिल्ममेकर इम्तियाज अली की नई फिल्म लैला मजनू कहानी कश्मीर की खूबसूरत वादियों से शुरू होती है। अली की लैला (तृप्ति डिमरी) एक दिलचस्प किरदार है। वो अपनी खूबसूरती के बारे में जानती है और लड़कों से मिलने वाले अटेंशन को एन्जॉय भी करती है। जब कैस (अविनाश तिवारी) लैला से मिलता है तो दोनों अपने आप ही एक-दूसरे की तरफ खिंचे चले जाते हैं। कैस के बारे में कहा जाता है कि वो शराबी और लड़कीबाज है। कैस के बारे में ऐसी बातें पता चलने पर लैला का इंटरेस्ट बढ़ जाता है। फ्लर्ट से शुरू हुई बातचीत गहरे प्यार में बदल जाती है। कैस, लैला के लिए जुनूनी हो जाता है और यही से उसकी बर्बादी की शुरुआत होती है। लैला के पिता (परमीत सेठी) एक पावरफुल आदमी है। उनका कैस के पिता (बेंजामिन गिलानी) से प्रॉपर्टी को लेकर झगड़ा चल रहा है, इसलिए दोनों फैमिलीज लैला-मजनू के प्यार को एक्सेप्ट नहीं करतीं। कैस देश छोड़कर चला जाता है। चार साल बाद वो वापस आता है लेकिन अब वो पागलपन की कगार पर पहुंच चुका है।
अगर बात करे एक्टिंग की तो फिल्म का हीरो कैस (अविनाश) फिल्म की ताकत है। तृप्ति खूबसूरत हैं और उन्होंने अपने किरदार को बखूबी निभाया है लेकिन फिल्म की जान अविनाश तिवारी ही हैं। इम्तियाज अली ने कैस के किरदार पर ही फोकस किया है और उनके पागलपन को दिखाया है। तिवारी ने इस किरदार को बेहतरीन तरीके से निभाया है। ऐसा कह सकते हैं कि वे एक शानदार अभिनेता हैं। साजिद ने 2 घंटे 15 मिनट की इस फिल्म को कहीं भी भटकने नहीं दिया। आखिर में इमोशन को दिखाते हुए ऐसा लगता है कि उन्होंने अपना कंट्रोल खोया है। फिल्म कहीं-कहीं सूरज बड़जात्या की 'मैंने प्यार किया' को ट्रिब्यूट देती दिखाई देती है।मांटिक फिल्मों के एक्सपर्ट बन चुके इम्तियाज अली के भाई साजिद अली ने इस फिल्म को डायरेक्ट किया है। साजिद ने इस फिल्म के साथ पूरा न्याय किया है। साहसी लैला और दीवाने मजनू के कैरेक्टर को शानदार तरीके से गढ़ा गया है। शशांक भट्टाचार्य ने बेहतरीन सिनेमेटोग्राफी कर कश्मीर की खूबसूरती को दिखाया है जिसने इस लव स्टोरी को रियल बनाने का काम किया है। साजिद ने बिना किसी इंटीमेट सीन के प्यार की गहराई को दिखाया है। आज के समय में जब लव स्टोरीज बहुत फास्ट दिखाई जाती हैं, लैला मजनू की कहानी धीरे-धीरे गहराई में उतरती है। जिसमें दो प्रेमियों का पागलपन दिखता है।
फिल्म का एक और प्लस प्वाइंट है इसका म्यूजिक। फिल्म में 10 गाने हैं लेकिन लगता है कि और होने चाहिए थे। म्यूजिक कंपोज निलादरी कुमार और जॉई बरुआ ने किया है। यह इस साल का बेस्ट म्यूजिक पीस हो सकता है। 
कुलमिलाकर अगर आप बॉलीवुड की घिसी-पिटी रोमांटिक फिल्मों से बोर हो चुके हैं और प्यार की इमोशनल और गहरी लव स्टोरी देखना चाहते हैं तो ये फिल्म जरूर देख सकते हैं।
गोलमाल सिरीज की पिछली किस्त ‘गोलमाल अगेन’ की शानदार सफलता ने बॉलीवुड में हॉरर-कॉमेडी विधा के लिए संभावनाओं के नए दरवाजे खोले हैं। ‘स्त्री’ भी इसी शैली की फिल्म है। हालांकि इसे सिर्फ इसी खांचे में रख कर देखना इसके साथ पूरा न्याय नहीं होगा। दरअसल यह फिल्म केवल डर और हंसी ही नहीं परोसती, कुछ कहने का प्रयास भी करती है।
फिल्म की कहानी घटती है मध्यप्रदेश के ऐतिहासिक शहर चंदेरी में। चंदेरी अपनी सिल्क और कॉटन की हस्तनिर्मित साड़ियों के लिए मशहूर रहा है, लेकिन फिल्म की कहानी का उससे कोई लेना-देना नहीं है। हां, कपड़े से फिल्म के तार जरूर जुड़े हैं। चंदेरी में तीन दोस्त रहते हैं- विकी (राजकुमार राव), बिट्टू (अपारशक्ति खुराना) और जना (अभिषेक बनर्जी)। विकी बहुत अच्छा टेलर है और अपने पिता (अतुल श्रीवास्तव) के साथ मिल कर सिलाई की दुकान चलाता है। बिट्टू की रेडिमेड कपड़े की दुकान है और जना क्या करता है, पता नहीं। विकी टेलरिंग का काम बहुत बेहतरीन करता है। आसपास के इलाके में उस जैसा शानदार टेलर कोई नहीं है। उसके पिता उसे दुकान पर ध्यान देने के लिए कहते हैं, लेकिन वह कुछ बड़ा करना चाहता है। एक दिन उसकी मुलाकात एक लड़की (श्रद्धा कपूर) से होती है, जो उसे एक लहंगा सिलने के लिए देती है। विकी को उससे प्यार हो जाता है। वह लड़की चंदेरी में पूरे साल में सिर्फ चार दिन के लिए आती है, जब चंदेरी में भव्य चार-दिवसीय पूजा का आयोजन होता है। इन चार दिनों में चंदेरी में एक अजीबोगरीब घटना होती है। एक ‘स्त्री’ वहां के पुरुषों को उठा कर ले जाती है और उनके कपड़े छोड़ जाती है। जहां ‘स्त्री कल आना’ लिखा होता है, वह उस जगह नहीं जाती, इसलिए चंदेरी में लोग सुरक्षा के लिए अपने घरों के आगे ये वाक्य लिखवाते हैं।
स्त्री के बारे में किसी को ज्यादा जानकारी नहीं है, लेकिन इसी शहर के एक पुस्तक भंडार के मालिक रुद्र (पंकज त्रिपाठी) का दावा है कि उन्होंने ‘स्त्री’ पर बहुत शोध किया है। वह एक दिन बिट्टू और जना को ‘स्त्री’ से बचे रहने का मंत्र देते हैं, लेकिन अंतिम बात बताने से पहले उनको कहीं जाना पड़ता है। और एक दिन ‘स्त्री’ जना को उठा कर ले जाती है। बिट्टू को शक है कि विकी की प्रेमिका ही ‘स्त्री’ है। विकी और बिट्टू, रुद्र के साथ मिल कर अपने दोस्त जना को ढूंढ़ने में लग जाते हैं। शहर का इतिहास लिखने वाले एक शास्त्री जी (विजय राज) उन्हें ‘स्त्री’ से बचाव का उपाय बताते हैं और फिर तीनों अपनी मुहिम में जुट जाते हैं। इसमें उन्हें साथ मिलता है विकी की प्रेमिका का...
इस हॉरर कॉमेडी में हास्य ज्यादा है और डर कम। ऐसा लगता है कि निर्देशक अमर कौशिक डर वाले तत्त्व को बहुत रखना भी नहीं चाहते थे, क्योंकि उनका मकसद लोगों को डराना नहीं, बल्कि उनका ध्यान खींचना लग रहा है। वह एक मनोरंजक तरीके से ‘स्त्री की बात’ कहना चाहते थे और व्यावसायिक पहलुओं को ध्यान में रखते हुए हॉरर-कॉमेडी विधा उन्हें सुरक्षित लगी होगी। इस फिल्म का सरल-सा संदेश है, जो संवादों और क्लाईमैक्स के जरिये सामने आता है। ‘स्त्री’ के साथ समाज ने ठीक सलूक नहीं किया। उसे जिस प्यार और सम्मान की चाह थी, उसे वह अपने समाज से नहीं मिला, बल्कि प्रताड़ना और दुत्कार मिली। लिहाजा ‘स्त्री’ क्रोधित है और स्त्री जब क्रोधित होती है तो संहारक बन जाती है। समाज को विनाश से बचना है तो उसे स्त्री की कद्र करनी होगी।
निर्देशक अमर कौशिक और लेखक जोड़ी राज निदिमोरू व कृष्णा डी.के. ने अपनी बात कहने में काफी हद तक सफलता पाई है। अमर कौशिक ने फिल्म पर अपनी पकड़ बनाए रखी है और दृश्यों की रचना अच्छी की है। बतौर निर्देशक वह प्रभावित करते हैं। फिल्म पहले दृश्य से रफ्तार पकड़ लेती है। मध्यांतर से पहले इसमें बहुत रोचकता है। कॉमेडी के शानदार पंच हैं। दूसरे हाफ में फिल्म का प्रभाव थोड़ा घटता है, लेकिन यह पटरी से नहीं उतरती। डर वाले दृश्य बहुत ज्यादा नहीं डराते, बस कभी-कभार थोड़ी झुरझुरी-सी पैदा करते हैं। बैकग्राउंड संगीत ठीक है, लेकिन उसको थोड़ा बेहतर किया गया होता तो फिल्म में भूतहा माहौल और उभर कर आता, इससे फिल्म के प्रभाव में थोड़ी वृद्धि होती। फिल्म की पटकथा अच्छी तरह लिखी गई है और संवादों में मजा के साथ जान भी है। निर्देशक और लेखकों ने व्यावसायिकता का पूरा ध्यान रखा है और इस बात की पूरी कोशिश की है कि संदेश के चक्कर में फिल्म सूखी न रह जाए। इसलिए फिल्म में एकाध जगह द्विअर्थी संवाद भी हैं, थोड़ा-सा रोमांस भी है और आइटम सॉन्ग भी। वैसे फिल्म के संगीत में बहुत दम नहीं है। दृश्यों में शहर का पुरानापन झलकता है, हालांकि सेट और बेहतर हो सकते थे।
राजकुमार राव बहुमुखी प्रतिभा वाले कलाकार हैं। किसी भी तरह की भूमिका हो, संजीदा या कॉमेडी, आतंकवादी या सीधे-साधे युवा की, हर भूमिका में उन्होंने खुद को साबित किया है। ‘स्त्री’ में भी अपने किरदार को उन्होंने अपने अभिनय से जानदार बना दिया है। श्रद्धा कपूर अब तक के अपने करियर में एक अलग तरह की भूमिका में हैं और उन्होंने उसे असाधारण तो नहीं, लेकिन ठीक तरीके से जरूर निभाया है। पंकज त्रिपाठी ऐसे अभिनेता हैं कि आप अगर उन्हें सिर्फ एक दृश्य और एक संवाद भी दें तो वे छाप छोड़ जाएंगे। उनकी रेंज भी शानदार है। उनकी संवाद अदायगी किसी भी किरदार को प्रभावी बना देती है। यह फिल्म भी अपवाद नहीं है। अपारशक्ति खुराना का अभिनय भी मजेदार है। इस तरह की भूमिकाओं में वे असर छोड़ते हैं। अभिषेक बनर्जी और अतुल श्रीवास्तव का काम भी अच्छा है। विजय राज सिर्फ एक दृश्य में हैं, लेकिन उसमें भी याद रह जाते हैं।
अपने प्रस्तुतीकरण के कारण ‘स्त्री’ एक देखने लायक फिल्म है। अगर आपको संदेश से बहुत लेना-देना नहीं रहता, तो भी यह फिल्म आपको निराश नहीं करेगी, क्योंकि इसमें मनोरंजन की मात्रा भी अच्छी है।

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