Tuesday, April 30, 2019

वामपंथियों के लिए अस्तित्व की लड़ाई बन गया है चुनाव

भारतीय राजनीति में वामपंथी विचारधारा ने मध्यमपंथी और प्रगतिशील प्रवृत्तियों को लंबे अर्से तक बढ़ावा दिया.
देश की राजनीति पर एक लंबे समय तक असरदार होने के बाद देश के चुनावी इतिहास में वामपंथी पार्टियां पहली बार बेहद मुश्किल चुनौती का सामना कर रही हैं.
साल 2004 के चुनाव में कांग्रेस को बहुमत नहीं मिल सका था और मनमोहन सिंह की सरकार के गठन में दूसरी पार्टियों के साथ-साथ वामपंथी पार्टियों का भी बेहद अहम किरदार था.
उस समय वामपंथी दलों को 59 सीटें हासिल हुईं थीं. सन 2009 के चुनावों में ये कम होकर 24 रह गईं और 2014 में ये आधी होकर सिर्फ़ 12 ही रह गईं.
इस बार वामपंथी दल पश्चिम बंगाल की 42 में से 40 और केरल की 20 लोकसभा सीटों पर चुनाव लड़ रही हैं. इसके अलावा वामपंथी दलों ने बिहार, तमिल नाडु, पोरबंदर और कई दूसरे प्रांतों से भी कुछ उम्मीदवार उतारे हैं.
बंगाल में आठ साल पहले ममता बनर्जी की तृणमूल कांग्रेस ने वामपंथी पार्टी को बहुत पीछे धकेल दिया था और अब वहां भी बीजेपी धीरे-धीरे वामपंथी दल की जगह लेती जा रही है.
डॉ. नंदनी मुखर्जी दक्षिण कोलकाता से वामपंथी दल की उम्मीदवार हैं. वो कहती हैं, "कम्युनिस्टों का पतन दस साल पहले बंगाल में आए सियासी तूफ़ान की वजह से हुआ."
उनके मुताबिक़, "बहुत सी सियासी पार्टियां अस्तित्व में आईं और फिर विदेशी ताक़तों ने भी बंगाल की वामपंथी सरकार को तबाह करने में मदद की."
लेकिन मार्क्सवादी कम्यूनिस्ट पार्टी के नौजवान संसद सदस्य रीताबृता बनर्जी कहते हैं कि कम्युनिस्ट पार्टी न सिर्फ़ ज़िंदगी की हक़ीक़तों से कट चुकी है बल्कि वो बदले हुए वक़्त और माहौल को भी समझने में असमर्थ हैं.
वो कहते हैं, "इनका सबसे बड़ा मसला माइंडसेट का है. वो जनता की ज़बान भी नहीं समझ पा रहे हैं. वो हक़ीक़त से कट चुके हैं."
उनके मुताबिक़, "ये सोशल मीडिया का ज़माना है. अगर आप लोगों से कहें कि आप मोबाइल न इस्तेमाल करें तो वो क्या सोचेंगे?"
वहीं कम्युनिस्ट नेता कनीनका बोस इसे लेकर बहुत चिंतित नहीं हैं और उनका मानना है कि ये वामपंथी दलों की ये ख़राब हालत अस्थाई है.
उन्होंने बीबीसी से कहा, "हमारा नज़रिया सही है. वो किसानों के बारे में, ग़रीबों के बारे में है, वो औरतों के लिए आंदोलन से जुड़ा है."
उनका कहना है, "लोगों को ज़रा समझाना पड़ेगा. लोग आज नहीं तो कल इस विचारधारा को समझेंगे."
मौजूदा चुनावी साल में वामपंथी पार्टियों के सामने अपने इतिहास की सबसे मुश्किल चुनौती है. ये चुनाव उनके लिए सिर्फ़ हार जीत का सवाल नहीं है. ये देश की चुनावी राजनीति में वामपंथी पार्टियों के अस्तित्व की लड़ाई बन चुका है.
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